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ये लड़कियां

ये खीज क्यों, गुस्सा है क्यों,  क्यों ये अजब खामोशी? ये लड़कियाँ, थी तितलियाँ,  क्यों हैं ये चुप शामों सी हैं? बेवजह ये रूठ जाती, लब क्यों सी लेती हैं? क्यों ये पल में मुस्कुरा कर, दर्द पी लेती हैं? हर कोई हैरान है पेचीदा पहेली सी है वो। गौर से जो हल करोगे, सचमुच अकेली सी है वो। घर है पहले, पहले कुनबा,  उसने ये सीखा सदा,  खुद से पहले और सभी का, दर्द है दीखा सदा।                    ये तुनक, ये गुस्सा जो है,  असल मे ये पर्त है। इन सभी से वाबस्ता प्यार है, बेशर्त है। अब तो गुस्ताख़ी भी करती बढ़ रही है देख लो। अपनी आँखों मे ये सपने गढ़ रही है देख लो। क्या ज़रूरत है उसे जब सब किया उसके लिये, क्यों जलाने चल पड़ी है, हसरतों वाले दिये? क्यों भला जाएगी बाहर, क्यों मशक्कत करेगी? उसे तो घर ही मुबारक क्यों ये जुर्रत करेगी? ये ज़माना और है कुछ,  यहाँ तो पर खोलेगी, अपने सपने, अपने अरमां,  हौंसले वो तौलेगी।                     हाँ मगर, ये ध्यान रखे चाहे उड़ ले जितना ही, एक डोरी से बंधी है जितनी वो है उतना ही। उड़ भी ले और दिन ढले ज़मीं पे आ ठहरे। खोल दो पर उसके लेकिन, रहने दो ये पहरे। अरे वो कमजोर है उससे