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सूर्योदय

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क्षितिज पर उजाला, हो जब फैलता, गगन को कभी,  उस समय देखना। सूर्यास्त निश्चित मनोहारी है, मगर तुम कभी  सूर्योदय देखना। शांत और स्थिर,  छटा प्रकृति की, भोर का एक  धुला सा  आभास है। ज्योति का स्त्रोत कोई प्रकट होता ज्यों, एक डिबिया सा  खुलता  आकाश है। वो सिंदूरी रंगत, चांद सूरज की संगत, अलसाये जग के, जगने की आहट। होती है जाग कहीं, चूल्हे में आग कहीं, वर्जिश करे कोई, छुंकता है साग कहीं। नज़र नज़ारे आते, पंछी चहकते गाते। जीवन का चक्का खुलता, धुलते चौक–अहाते। चाय की प्याली भी है, कुछ बे–ख़याली भी है। फुर्सत के पल भी हैं, कुछ बेहाली भी है। लाली से पीत आभा, पीत से धवल होता। कालिमा बुहार कर, निर्मल और उज्ज्वल होता। भोर का सुबह होना, जादुई एहसास है। कितने रंग नभ में बिखरे, जैसे कैनवास है।                            ~नेहा दशोरा