जल्दी क्या है?

जल्दी क्या है, कहां है जाना?
कैसी नगरी कौन ठिकाना?
भागे जाना, भागे जाना 
रुकने का ना कोई बहाना।

इतनी जल्दी फिर भी ठहरे, 
रोज़ाना की वर्दी पहरे।
दिन उगता, दिन ढल भी जाता
ना मिलता बस कोई मुहाना।

मैं भी दौडूं, तुम भी दौड़ो,
मुट्ठी से रेती को छोड़ो।
सबकी उम्रें फिसली जाती,
गुज़रा जाता यूं भी ज़माना।

उलझन में हैं हम, और तुम भी,
खोया है मन, और है गुम भी।
इसके–उसके राग हो गाते,
भूल गए हो अपना तराना।

फिर मंज़िल को पूगे हो जब,
रीत चुके हो, सूखे हो तब।
वो रस्ते क्या तुमने चुने थे?
या तुमको था रीत निभाना?

क्या है जीवन? क्या सार है इसका?
पलड़ा भारी, या इसका, उसका।
है रस्साकशी, है खींचातानी,
बस खुद को है श्रेष्ठ बताना।

लेकिन क्या बस सार यही है?
ना–ना मेरे यार, नहीं है।
तुमको, हां तुमको ही तो,
लिखना होगा अपना गाना।

जल्दी क्या है? क्यों भागे हो?
सोते में भी क्यों जागे हो?
जीवन को जीना होता है,
ना कि इसको है निपटाना।

जब हो जहां, वहीं रह लो ना,
जो कहना है, वो कह लो ना।
ऊब गए हो इन पचड़ों से,
बंद करो अब खुद को छिपाना।

जल्दी में भी हो, ऊबे भी,
हरदम चिंता में डूबे भी।
तुमसे है ये दुनिया, दुनिया,
फिक्रों में ना खुद को घुलाना।

हां सच है, संघर्ष घने हैं,
पग–पग पर तो शूल तने हैं।
फिर भी पार हुआ जाता है
बस तुम चलते–चलते जाना।

जल्दी क्या है? 
बस चलते जाना।
पा जाओगे, 
अपना ठिकाना।
गा पाओगे,
अपना गाना।
लिख जाओगे,
अपना फसाना।

–नेहा दशोरा

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