खो देना...
जो खोते हैं, क्यों खोते हैं?
खो देकर फिर, क्यों रोते हैं ?
जो खोया है साथ नहीं है,
जो पाया, वो बात नहीं है।
मोल-तोल के इन झगड़ों में,
इसके ना उसके होते हैं।
ये मानुष का मन है ऐसा,
जिससे मिलता ढलता वैसा,
रंग चढ़े ही है संगत का,
खोकर भी वो ना खोते हैं।
माना वो अब साथ नहीं है,
खोना–पाना हाथ नहीं है।
फिर भी खोने या पाने पर,
फूट पड़े मन के सोते हैं।
खो देना क्या खो देना है ?
पा लेना क्या पा लेना है ?
जो ना है वो ना होना था,
होने थे जो वो होते हैं।
वो खोया है, ये है पाया,
कहते इसको दुनिया-माया ।
होगा अदा जो बदा हुआ है,
जीवन के से सब गोते हैं।
वो मिट्टी था या सोना था,
जो खो बैठे वो खोना था।
जो खोया है, ना खोया है,
जीवन में वो भी बोते हैं।
कुछ पा करके कुछ खोते हैं,
पर खोने को ही रोते हैं।
मानव मन यों भी होते हैं,
मानव मन यों ही होते हैं।
–नेहा दशोरा
Comments
Post a Comment