जीवन का सार
उपमाऐं कुछ नहीं शेष,
क्या लिखूं कहूं अब क्या विशेष?
संघर्ष लिखूं इस जीवन को,
या कहूँ प्रगति का श्रीगणेश?
धरती की पहचान लिखूं
विधाता का अनुसंधान लिखूं?
मानव के बढ़ते कदम गिनूं,
कि संस्कृति का अवसान लिखूं?
कातरता अवसाद कहीं,
कष्टों की करुण कहानी।
हर्ष और उल्लास कहीं,
आल्हाद है ये ज़िंदगानी।
जीवन अनंत का सार लिखूं,
या लघु जीवन का प्रसार लिखूं?
निराकार की रचना है,
या स्वयं प्रभु साकार लिखूँ?
लिख दूं जीवन छोटा सा है,
या इसके वैराट्य को दूं बखान?
जीवन के माने लिखने हों तो,
छोटा पड़ता जग का ज्ञान।
हर इक जीवन अपने में,
एक अमिट कहानी कहता है।
ठोकर खाकर गिरता तो है,
पर आगे बढ़ता रहता है।
तो जीवन की हर परिभाषा
हम ही लिखते, गढ़ते हैं।
सच है जीवन जीते हैं तब
जब कि खुद को पढ़ते हैं।
–नेहा दशोरा
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