कणिकाएं –१
कतरा–कतरा बढ़ता जीवन,
लम्हा–लम्हा घटता है।
सांसों की गिनती होती है,
कर्मों का फल बंटता है।
धूप–छांव का खेल ज़िंदगी,
कभी है सहरा, कभी घटा।
इंसां एक लड़ाका है जो,
गिर–गिर के फिर उठता है।
–नेहा दशोरा
कतरा–कतरा बढ़ता जीवन,
लम्हा–लम्हा घटता है।
सांसों की गिनती होती है,
कर्मों का फल बंटता है।
धूप–छांव का खेल ज़िंदगी,
कभी है सहरा, कभी घटा।
इंसां एक लड़ाका है जो,
गिर–गिर के फिर उठता है।
–नेहा दशोरा
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