पर्दा गिरना

पर्दा गिरता गिर ही जाता 

है हर एक तमाशे में ।

कोई कसक छुपी रहती है,

मस्ती भरे ठहाके में।


तुम अपनी हस्ती दिखला कर, 

हो सकता खो जाओगे । 

पर अपनी हस्ती झुठला कर, 

यार कहां तक जाओगे? 


कोई फर्क नहीं पड़ता है, 

कितने ऊंचे बैठे हो। 

कोई मोल नहीं रहता है

गर तुम सबसे ऐंठे हो।


अपनी पीड़ा गाते रहना,

कोई सुन भी लेगा तो।

अपने कष्ट तुम्हीं को सहना 

साथ कहां तक देगा वो?


कितना सहना, कितना कहना,

हर एक का पैमाना है।

पानी सर के ऊपर जाए

इसे छलक ही जाना है।


कोई तीर कमानी छोड़े,

लौट कहां आ पाता है।

कोई शब्द हलक से निकले,

बड़ी दूर तक जाता है।


इससे कहते हैं सब दाने,

जब भी मुंह को खोलो तुम।

अपनी बातें, अपने वादे,

सोच समझ कर बोलो तुम।


कितने गहरे, कितने उथले,

शब्द बता ही देते हैं।

मन की सारी उथल–पुथल को,

भाव जता ही देते हैं।


जीवन का मतलब समझो,

तब जाकर कुछ बात बने।

यादें तो वो ही मीठी हैं,

जो कि सबके साथ बने।

                          – नेहा दशोरा 

Comments

Popular posts from this blog

राम

जब मां थी...

मनोभाव