तुम ज़रूरी हो...

ये धरती भी ज़रूरी है, अगर अंबर ज़रूरी है। 
तुम इस घर को ज़रूरी हो, तुम्हें ये घर ज़रूरी है। 

वो छत पर भीगते कपड़े, तुम्हीं को तो समटने हैं। 
वो बड़ियां और वो पापड़, तुम्हीं को तो पलटने हैं।

तुम्हें घर भर चमक जाए, ये भी तो ध्यान देना है। 
जब चूल्हा जलाओगी, तभी सबका चबेना है।

तुम्हें है देखना कोई, सामान कम ना हो।
तुम्हीं डालोगी वो पर्दा, कि कोई भी खलल ना हो।

तुम नींव हो, हो ईंट, तुम्हीं घर की कतारें हो। 
तुम्हीं हो दीप देहरी का, तुम्हीं घर के उजाले हो।

तुम त्योहार का उल्लास, घर भर में जगाती हो।
तुम्हीं जीवंतता लाती, मकां को घर बनाती हो। 

मगर करते हुए ये सब, जब दुत्कार दी जाती। 
हमेशा टोक दी जाती, सदा फटकार दी जाती।

तुम्हें मालूम क्या है, सब मालूम होकर भी।
तुम कुछ भी नहीं करती, इतना बोझ ढोकर भी।

जो तुम ये पहर आठों, खुद ही को खपाती हो।
सभी के वक्त के सांचे, में जो खुद को समाती हो। 

कभी खुद को भी देना वक्त, खुद की भी क़दर करना। 
कभी खुद के ही भीतर का, वो छूटा सा सफर करना।

कभी तो गौर फरमाना, हुआ करती थी तुम क्या-क्या।
कभी तो खोजना फिर से, पढ़ा करती थी तुम क्या - क्या। 

ज़रूरी है ये घर भी, मगर तुम भी जरूरी हो।
ज़रूरी है तुम्हें सब कुछ, सभी को तुम ज़रूरी हो।

सभी को साथ ले चलना, ज़रूरी, हां ज़रूरी है।
मगर खुद खोने से बचना, बहुत ज़्यादा ज़रूरी है।

सुनो कोई ना सोचेगा, अगरचे तुम न सोचोगी। 
कोई सोचे या ना सोचे, मगर अब तुम तो सोचोगी।

अगर अपनी खुशी को तुम, बहुत ऊपर जगह दोगी।
यकीं मानो के ये दुनिया, बहुत बेहतर जगह होगी।

ये धरती भी जरूरी है, अगर अंबर ज़रूरी है। 
तुम इस घर को ज़रूरी हो, तुम्हें ये घर ज़रूरी है।

                                                   ~नेहा दशोरा



Comments

  1. Your words resonate deeply, reminding us of the invaluable contributions women make to our lives and society. What a beautiful rendition to the strength, grace, and resilience of women everywhere.

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