मन यों भागे...

ये सुख है या सुख की छाया, 
मन यों भागे, पिछड़े काया।
ना दिन को है, रैन नहीं है, 
क्यों इस मन को चैन नहीं है ?

मन की दौड़ कहाँ रुकती है, 
मन की ज़िद कहाँ झुकती है। 
कितना भी समझा, बहला लो,
मन की आस कहाँ चुकती है।

मन माने तो सब अच्छा है, 
मन के सच से सब सच्चा है। 
मन की गांठ कहाँ खुलती है, 
मन का ये धागा कच्चा है।

मन की तो ये मन ही जाने, 
मन ना माने, तो ना माने। 
मन की डोर जुड़े वो अपने,
ना जुड़ पाए वो बेगाने।

मन ये एक अजब चिड़िया है, 
कैसी आफत की पुड़िया है।
हमको तुमको बांधे हैं जो, 
वो भी मन की ही कड़ियां हैं।

मन रीता हो, मन भर आए, 
मन ही मन में खेल रचाए। 
हेत बिगाड़े, मेल बनाए, 
आंखों देखी, मन झुठलाए।

मन बिगड़े तो जग सूनापन, 
मन हुलसे तो वन भी मधुबन।
क्यों बाहर सुख ढूंढ रहे हो, 
पहले खोजो खुद अपना मन ।

हर्ष-विषाद सभी का आंगन। 
खुशियां-गम हैं सब अंतर्मन। 
खुद से खोलो खुद अपना मन। 
जाओ टटोलो खुद अपना मन।

                      - नेहा दशोरा

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