ये क्यों है?


खुद ही से खुद को झुठलाना,

ये कैसी लाचारी है? 

कथनी करनी भेद दिखाना, 

ये कैसी होशियारी है?


निर्बल ऊपर रौब जमाना,

ये कैसी दमदारी है? 

औरों की गठरी हथियाना, 

ये कैसी ऐयारी है?


अपनी ढपली राग भी अपना,

ये तो एक फनकारी है। 

लेकिन औरों को धकियाना, 

ये तो बड़ी मक्कारी है।


सोचो तो कितना ही सोचो, 

दुनिया में गम भारी है।

हर एक को ये लगता है कि,

दर्द से उसकी यारी है।


हम इस दुनिया के बंदे हैं, 

और ये दुनिया प्यारी है। 

उसने हमको जो बख्शा है, 

हम उसके आभारी हैं।


लालच के आगे ढह जाए,

ये कैसी खुद्दारी है? 

अपना कहकर पीठ दिखाए, 

ये तो बड़ी गद्दारी है।


चकाचौंध के पीछे भागे, 

दुनिया को बीमारी है। 

अपने हित को हामी भरते, 

दूजे को इंकारी है।


यों ही धरा ये रह जाना है, 

जो कुछ भी संसारी है। 

एक दिन सहसा कूच करेंगे, 

फिर कैसी तैयारी है?

                       ~नेहा दशोरा

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